समय से भी पहले,
कथित एक क्षण था;
जब सब केवल शून्य था |
थे कुल केवल तीन विकल्प-
शून्य सिकुड़ सकता था ,
या जैसा है वैसा ही बन-
रह सकता था |
पर चुना उसने तीसरा विकल्प|
कण में निहित कण,
शून्य पहले प्रकाश बना;
सूर्य, ग्रह और चाँद बना,
बादल घन बन बाँध बना;
घट घट पनघट बूँद बना,
ओस बना, धूप बना;
आंसू बना, खून बना,
किलकारियों का भ्रूण बना;
अथाह रहस्यों से लैस,
केतुओं का समूह बना |
तभी किसी डॉप्लर ने कहा-
देखो वह अब भी फ़ैल रहा है!
अनंत से परे अनंत तक,
समय से परे क्षण तक …
शून्य अगर फैलने की ठान ले,
तो शून्य शून्य नहीं रह जाता;
शून्य भगवान् बन जाता है,
शून्य ब्रह्माण्ड बन जाता है …..
~समर~
समर भीड़ में उलझा एक चेहरा है |
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very good , beauty of zero can be seen in this poem .
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