समर की पहली कविता

अब समर जब कलम चले,
योद्धाओं का ही स्मरण करे|
बिगुल, बलिदान;
साहस, सम्मान;
रक्त संचित गोधूलि
का ही नमन करे|

बहुत हुए अब विरह गीत,
पीछे छूटे अब मन-मीत,
मिलन-रस है क्षणिक समर,
अब वीर-रस का आह्वान हो,
युद्ध की महिमा का ही गुणगान हो|

मंदिर में रखी चट्टान,
जैसे बन जाती है भगवान,
समर रण वही मंदिर है,
दिव्य-तुल्य जहाँ होता इंसान|

रक्त की धार,
जब रण में बहा करती है;
शीश विच्छेदित धड़ों की श्रृंखला,
जब आगे बढ़ने से रोका करती है;
योद्धा तब भी डटें रहते हैं,
युध्द की वीभत्स्ता को,
भाव विहीन हो कर वरण करते हैं|

हर युद्ध समर, धर्म-युद्ध समर-
एक क्षण का भी विराम नहीं|
योद्धा युद्ध किया करते हैं,
एक अश्रु तक का विलाप नहीं|

चक्रव्यूह शत्रु नहीं,
वह योद्धा की पहचान है|
चक्रव्यूह की गहनता ही –
अभिमन्यु का मान है|

आह! अलौकिक क्षण,
जब दिग्गजों को ललकारा था
उस कमल किशोर ने|
मृत्यु अटल थी-
थी अटल पराजय,
किन्तु दुरन्धरों के समक्ष,
वो किंचित विचलित नहीं हुआ|

जब रथ टूटा,
तलवार छिनी और ढाल गिरी,
उस टूटे पहिये को उठाने में
समाहित शौर्य के आगे-
ब्रह्माण्ड की हर शक्ति शर्मसार हुई|

जब उठा होगा वो टूटा पहिया,
पौरुष तभी परिभाषित हुआ होगा-
दुर्योधन का अभिमान भी,
छिन्न – भिन्न और स्तब्ध हुआ होगा |

युद्ध अस्तित्व की गरिमा समर,|
युद्ध से मत डर समर,
युद्ध को बस लड़ समर|

अब समर जब कलम चले,
योद्धाओं का ही स्मरण करे|
बिगुल, बलिदान;
साहस, सम्मान;
रक्त- संचित गोधूलि
का ही नमन करे|


~समर~

समर भीड़ में उलझा एक चेहरा है |

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