आह विभीषण!
धर्म तुम्हें ठगता है |
कहे तुम पर आश्रित को जग पुरुषोत्तम,
तुमको भेदी घर का ढाहे लंका कहता है|
धर्म तुम्हें ठगता है|
कोई मंदिर नहीं, सम्मान नहीं;
कोई सादर सत्कार नहीं ,
यहाँ पीये मलाई नाग देव तक-
तुमको जल भी नहीं चढ़ता है |
धर्म तुम्हें ठगता है|
अप्सराओं की अवहेलना,
क्या स्वर्ग में तुम्हें खलती है?
गद्दार! धोखेबाज़! फरामोश!
बुद्धिजीवियों की यह निंदा,
क्या वहां भी अखरती हैं?
बकने दो बावलों को!
तुम मेरी बात सुनो-
ये बूढ़ा बरगद,
जो फैला है पहाड़ से समुद्र तक,
कहता खुद को जम्बुद्वीप है;
जर्जर हर शाख़ है इसकी-
फूल सूँघता है , जड़ को दूसता है,
धर्म नहीं , विजयी को दशमी पर पूजता है|
तुम जो होते भातृ भक्त तो –
इसका इतिहास भूगोल कुछ और होता|
दाग़े जाते पुतले रघुकुल दीपों के,
सत्य बस रावण –
बस रावण ही महान होता|
सिखलाया तुमने-
जो हो परिवार में भी गलत कोई तो-
करे अन्याय. अमानवीय, अनीति तो-
हो उठ खड़े होना विरोध में ,
न विचलित होना परिजनों के,
तिरस्कृत अभियोग से|
हम न सीखे!!
हमारी दुर्बलता है.
तुम्हारे चरित्र की नहीं ,
हमारे पौरुष की विफलता है|
हम नहीं समझेंगे कभी,
तुम क्या थे, क्या हो और क्या रहोगे|
यह भी सच है कि तुम उलाहित होते रहोगे|
पर तुम फिर आना!
गली-गली पनपती लंकाओं को,
न्याय-ओ – विवेक से ढहाना,
सीताओं की लाज बचाना|
युद्ध में शायद तुमे भेदी कहलाओ,
“समर” में किन्तु सदा महायोद्धा कहलाओगे,
मर्यादा पुरुषोत्तम को अमर, अजर, अजेय;
तुम ही बनाओगे|
~समर~
समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |
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अति सुंदर।
विभीषण का मन इससे बेहतर नहीं हो सकता।
अनेकानेक बधाई समर।🙂👌
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