पीढ़ी दर पीढ़ी
प्रगति के पथ पर
हर व्यक्ति चलता जाता
दूर बहुत दूर,
आंगन से, आँचल से,
दलान से, मचान से,
आम के बग़ान से,
पुरखों के समाध से…
मैं सोचता हूँ,
क्यों पेड़ सा तटस्थ होना,
प्रगति के लगते मायने नहीं?
क्यों शहर का गाँव होना,
उड़ने के दायरे नहीं?
मन आह!!विकराल बहरूपिया!!
बने पेड़ भी, पंख भी,
पर तन बेबस मृत्तिका का आकांक्षी!!
तन, मन – धन के इस द्वंद में,
उलझता जाता… और…
हर व्यक्ति चलता जाता
दूर बहुत दूर,
आंगन से, आँचल से,
दलान से, मचान से,
आम के बग़ान से,
पुरखों के समाध से….
~समर~
समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |
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