स्मृति – स्तंभ

२० अगस्त २०१८

अटल जी चले गए…

जिन स्तंभों पर हमारे बचपन की यादें टिकी हुई हैं वो गिरने लगी हैं| अटल जी के जाने से यह अनुभूति और व्यग्र हो चली है| स्तंभों, मीनारों और दीवारों के ढहने का यह कम्पन जब अंतर्मन तक पहुँचता है तो मन बड़े होने का स्वांग रचना छोड़ देता है| वह एक नया स्वांग रचता है कि यथार्थ से परे एक ऐसा कालखंड है, जहाँ अभी भी नब्बे के दशक का लम्हा गुज़र रहा है| हम अभी भी छत पर अंकुश जी, मंडल और कन्नू भईया के साथ क्रिकेट खेल रहे हैं| नवादा का दालान है, बसुहाम की छत है| पापा की हिम्मत है, माँ का आँचल है, नाना की याद है, नानी का लाड है, चानी दीदी, गुड़िया दीदी, आशु भैय्या से नोंक झोंक है, आंटी की दाल रोटी है, अंकल का समझाना है |

पीसाजी – फुआ असहनीय पीड़ा में भी अदम्य साहस से जीने और मुस्कुराने का पाठ पढ़ा रहे हैं| दीदीयाँ उनकी हिम्मत बन रही हैं| पापा डैडी मिलकर हम बच्चो के सुनहरे भविष्य के लिए अपने अतीत और वर्तमान को जीत रहे हैं| छोटे पापा, रंजन मामा और भारतेन्दु अंकल के साथ दाल मखनी – नान, टिक्की पापड़ी खाने जा रहे हैं। दादी नए नए व्रत रख रही है, माँ स्कूल जाने के लिए उठा रहीं है, छोटी माँ मछली-चावल खिला रही हैं| योषा, यतिन की किल्कारिओं से पूरा घर चहक उठा है, सचिन तेंदुलकर रेतीली आंधी में पैड उतारने से मना  कर रहे हैं।

अटलजी बिना परास्त हुए, सदन को संबोधित कर रहे हैं-

“सरकारें आएँगी, जाएँगी; पार्टियाँ बनेंगी, बिगड़ेंगी;  यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र  अमर रहना चाहिए|”

और बाबा यह टीवी पर देख मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं…..


~तनय “समर”~

समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |

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