मैं अंश हूं |
काया मिली, वंश मिला,
मेरी किलकारियों से जग खिला,
पर कुछ भूल रहा हूं-
किस करण यह देह मिला?
मैंने युद्ध कर बोलना सीखा,
संघर्ष कर चलना सीखा,
परिवार में पलना सीखा,
प्यार व क्रोध से झूझना सीखा,
पर कुछ भूल रहा हूं-
अभी तो विद्या का भेद ना सीखाl
मैं उत्तीर्ण हुआ, प्रफुल्लित हुआ,
असफ़लता में निराश हुआ,
कलाएँ सीखी लाभानवित हुआ,
पर कुछ भूल रहा हूं-
उदेश्य की सीढ़ी से परिचित न हुआl
परीक्षाओं ने मेरा जीवन आंका,
पढ़ा वह जो ना था मांगा,
प्रतीत हुआ यह कैसा है झांसा,
पर कुछ भूल रहा हूं;
क्या मेरी ही नीति ने मुझे है टांगा?
समय से मैंने समझौता किया,
प्रारब्ध का अपने स्वागत किया,
विचलित मन को शांत निज सम्बन्धियों की खुशी से किया,
पर कुछ भूल रहा हूं
क्या परिश्रम से लक्ष्य हासिल किया?
शरीर की देख-रेख अब प्राथमिकता है |
निर्वाहेतु भोजन व दवा की आवश्यकता है |
सपने तो नित बनते व लुप्त होते हैं ,
हंसी आती है जब याद आती है ,
कि भूला तो कभी ना था
आत्मा स्मरण से शक्ति आती है |
मैं भूत नहीं भविष्य हूँ ,
प्रचंड ज्योत की लौ हूं ,
मन नहीं अपितु स्वामी हूं ,
ध्येय के प्रति कार्यरत हूं||
~विजय छाबड़ा~
विजय एक ख़ुशक़िस्मत इंसान हैं जो महत्वाकांक्षी एवं कार्यरत हैं | महफिल तथा संगीत से अपार प्रेम है और आशावादी दृष्टिकोण से समाज समझते हैं |
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बहुत सुंदर कविता है।😊
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Congratulations!!
Beautiful poem. enjoyed reading it.😊
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