दादी का नाम वैदेही देवी है | नाम बताना ज़रूरी है क्योंकि दादिओं और नानिओं के नाम अक्सर बस दादी और नानी ही हो कर रह जाते हैं | लेकिन संबंधो के परे भी तो व्यक्ति की अस्तिव होता है | नाम होता है |
जिस पीढ़ी ने दादी को जन्म दिया वो विलुप्त हो चुकी है | जिस पीढ़ी में दादी का जन्म हुआ वो विलुप्त होने की कगार पर है | पीढियों से परे, अपने गाँव से दूर, अस्पताल के बेड पर दादी नसों में सुई चुभोने से कराह उठती है | कराहती भी क्या है ? हे भगवान् ? हे प्रभु ? हे वो सब इष्ट देव जिनके नाम से व्रत रख रख पूरी उम्र बिता दी ? नहीं !! असहनीय पीड़ा में वह कराहती है वह अनोखा जादू भरा शब्द जिसमे दुनिया की हर पीड़ा हर लेने की ताक़त है – “माय गय ~~”|
विस्मित हो मैं बिखरता हूँ | एक अथाह अथक यात्रा, युगों युगों की यादें और रिश्ते, दशकों के संस्मरण, पर इन सब पर भारी वह एक शब्द| वह एक सम्बन्ध | वह एक संस्मरण | “माय गय ~~”|
रात दो बजा चुकी है| घर पर सब सो रहे होंगे | और सब जगे होंगे | जब कोई घर का अस्पताल में होता है तो घर पर सुबह की उम्मीद भी होती है और खौफ़ भी | दादी को लेटा देख एक दूसरा काल खंड झिलमिलाता है | दादी शुरू से बूढी तो न रही होगी | जो हर्ष ओ उल्लास हम सब के जन्म पर दादी ने मनाया, वह उमंग दादी के जन्म पर उनके आँगन में भी तो फैली होगी | गोल मटोल सांवला चेहरा, छोटी छोटी उंगलियाँ, काजल से लबालब टुकुर टुकुर ताकती आँखें, किलकारी, रुदन, सोते सोते मुस्कुराना, माथे पर काला सा टीका, मचलती नन्हीं कलाई, उनमें छोटी छोटी गुलाबी नारंगी चूड़ी, कोई फ्राक शायद, कोई चुन्नी शायद | और उस छोटी सी बच्ची का दार्शनिक सा नाम – वैदेही |
बेलसंडी गाँव में सुबह हो चुकी है | दादी अपने दोनों बड़े भाईओं का हाथ पकड़, डगमग डगमग कदमों से धरा नाप रही है | माँ देर होने पर डांटेगी तो भाई संभाल लेंगे | सुनहरी चटकती चमकीली राखी भी है | सहेलिओं संग होली भी है है | आँख मिचोली भी है | ज़ोर की बारिश होती है | ज़िद है कि इस साल दुर्गा पूजा के मेले से गुड़िया लेनी है |
लेकिन इस साल की और इस साल से दुर्गा पूजा नवादा में होगी | वैदेही को जनक से बिछड़ना होगा|
बाबा बारात लेकर आ चुके हैं | सूर्य से नाते ओस बन अदृश्य हो रहे हैं | फ़ोन नहीं है कि पहुंचे तो बतलाया जाये हाँ ठीक से पहुँच गए | चिट्ठी दादी की माँ पढ़ेंगी कैसे ? वह दादी के मुंह से माँ सुनेंगी कैसे ? दादी माँ को माँ कहेंगी कैसे ? दादी अपनी माँ से अब मिलेगी कैसे ?
अथाह अमित स्नेह से भरी और भीगी चार आँखें, चाँद को धुंधलाता देख सोने की कोशिश करती हैं | ख़तम प्रथम अद्ध्याय | एक नयी कहानी शुरू होती है |
“बौआ सुतलीह नय ? तखेन्न स कुर्सी पर बईसल छय |”
दादी की हल्की आवाज़ मेरा सम्मोहन तोड़ देती है |
“सुईत रहबय दादी | अहाँ सुतू |” मैं बडबडाता हूँ |
“हमरा स होयतौ त हम बिछौना क देतियो| उठले नय होय छौ| ”
मैं पीड़ा, प्रेम , क्रोध, और लज्जा से तिलमिला उठता हूँ | नहीं बर्दाश्त इतना स्नेह | नहीं क़ाबिल इतना मैं कि कोई अपनी असहनीय पीड़ा में, जिसे खाने पीने, उठने बैठने, जीने मरने, की सुध नहीं है, लेकिन यह चिंता है कि पोता सोयेगा कैसे ? क्या न कर दूँ मैं इस बुढ़िया के लिए जो इस परिस्थिति में भी मुझे ममत्व सिखा रही है | बाहों में समेट लूँ ? गोदी में सुला लूँ ? माथा चूम लूँ ? तीरथ करा दूँ ? भालू बन बन नाचूं ? लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ ? कुछ नहीं| बस पहर दर पहर किन्कर्त्वव्यविमूढ़ हो कर प्रकाश की प्रार्थना |
“पप्पा कख्हेन्न एत्तौ ?”
“कनिया ठीक छौ ?”
“मिट्ठू के कहीं हमरा घर ल चलते |“
“चाय दे| “
मैं भागता हुआ बाहर जाता हूँ| गार्ड से पूछता हूँ चाय कहाँ मिलेगी ? वह कहता है मैं ला दूंगा आप बैठो | मैं निश्चिन्त हो कर दादी के पास आ कर बैठ जाता हूँ | हल्की बारिश में रात सुबह बन रही है | पांच बज चुके हैं |
सफ़ेद झुरमुट से बालों वाली अपनी दादी को, जब मैं देखता हूँ तो मुझे वह गुड़िया दिखती है जिसकी ज़िद दादी अपने बचपन में करती होगी | इस गुड़िया ने वह सब देखा है जो हम सबने देखा है | पर इसने वह भी तो देखा है जो हमने नहीं देखा और आगे देखना है | यह पड़ाव सिर्फ़ दादी का पड़ाव तो नहीं| हम सब का है | सिर्फ़ दादी की कहानी तो नहीं, हम सबकी है | सब अलग अलग| पर कहानी सबकी एक जैसी | बहरूपिया समय परिजनों की उम्र बन कर अपनी कहानी सुनाता रहता है | और मनुष्य कुछ नहीं बोल पाता | समय मूक होते हुए कितना वाचाल है | मनुष्य सशब्द होते हुए भी मूक |
अपनी और अपनी पिछली पीढ़ी से परे, किसी सुदूर कालखंड में, मैं बेबस लाचार लेटा हुआ हूँ | कोई मेरे बगल में बैठा हुआ है | और वह भी सोच रहा है मेरे बचपन के बारे में, जब मैं असहनीय पीड़ा में कराहता हूँ वही अनोखा जादू भरा शब्द, जिसमे दुनिया की हर पीड़ा हर लेने की ताक़त है –
“माय गय ~~”|
~तनय “समर”~
समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |
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