बंद आँखें कितनी अजीब होती हैं। इनसे कुछ नहीं दिखता है और सब कुछ दिखता है। मेरे गाँव का दालान जहाँ गर्मी की दोपहर गुज़ारा करता था, मेरे ननिहाल का आँगन जहाँ तुलसी का पेड़ है, वो मंडप है जहाँ माँ पापा का ब्याह हुआ था- दिखता है। दिखती है वह छत जहाँ शायद मेरे दोस्त अभी भी क्रिकेट खेलते हैं। मैं खुद को भी देख लेता हूँ – दुबला पतला हाफ पेंट पहने, “ओवर की कितनी गेंदे हुई कितनी बांकी है” पर अपने दोस्तों से बहस करता। विचित्र है… मैं आँखें खोल के खुद को नहीं देख पाता शीशे के बिना। बंद कर के देख लेता हूँ।
बाबा थोड़े बीमार थे तो मेरे साथ एक बार मंदिर गए थे। मुझे मंदिर, वहां का तालाब , शंकर भगवन की फोटो, विशाल बरगद का पेड़, बगल का रेलवे स्टेशन, गुज़रती रेलगाड़ियाँ- सब दिखता है। बाबा भी दिखते हैं। अठारह सालों में शायद ही किसी दिन उनकी याद नहीं आई होगी| पता नहीं पापा और दादी कैसे रहते हैं। मेरा बाबा का साथ तो केवल 11 साल का था जिसमे शुरू के 3 -4 साल तो मुझे याद भी नहीं। लेकिन पापा, चाचा, दादी के जीवन की तो नींव थे बाबा।
केवल अतीत दिखता है ऐसा नहीं है। देखता हूँ मेरी शादी हो रही है। माँ खुश है। पापा के चेहरे पर सुकून है। बहनें चिढ़ा रही हैं। दोस्त नाच रहे हैं। दिखता है गुलाबी साड़ी में सिमटी हुई एक परी का शरमाना जिसके साथ मुझे बूढ़ा होना है। दिखता है उसके साथ होने वाली नोक झोंक, बेटी को पुचकारना, गोद में सुलाना , ससुराल के रिश्ते निभाना, अपनों का न चाहते हुए भी एक- एक कर के बिछुड़ना, अपने हाथों से उन्हें बहाना। कितना कुछ करना है अभी| सहना है अभी। जीना है अभी। मनुष्य सर्व-सशक्त, सर्व-बलशाली होते हुए भी कितना निरीह है। कितना बेचारा..अकेला.. बेबस…
खुली आँखें केवल यथार्थ दिखाती हैं। दिखाती हैं कि उजाड़ पड़े रेगिस्तान में एक पेड़ सूख चुका है। बंद आँखों से दिखता है कि उसमें भी कभी पत्ते थे, पल्लव थे, छाँव थी। वह यह भी दिखाती हैं कि फिर नए पेड़ लगेंगे।
फिर रेगिस्तान बाग़बान बनेगा….
~समर~
समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |
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