महानता के प्रवचन

हर कोई देता,
महानता के प्रवचन,
सुनता रहता कवि
छोटा बन।
“तुम पेड़! क्यों पंथी नहीं?
पंथी मगर, क्यों पेड़ नहीं?
जो हो क्यों हो?
जो नहीं- क्यों नहीं? “

सिमटता जाता,
सारा आकाश,
पहाड़ पठार;
उसकी कविताओं में।
खोजता टटोलता खुद को,
निज कविताओं में।
विफल किंतु वहाँ भी।
मिलती उलाहना –
वहाँ भी।

उसकी अपनी कविताएँ
करती विद्रोह-
“जो तुम नहीं महान कवि कोई
तो हमें रचा क्यों?
जब तुम्हारा ही अस्तित्व एक प्रश्न है
तो हमें होने की सज़ा क्यों?
तुम योग्य नहीं। “

जग से त्रस्त,
पंक्तिओं से पस्त,
कवि लौटता,
अपने एकाकी शून्य में;
ठुकराया हुआ अपने हर अंश से,
वो मूँदता दृग और सोचता-
“क्या नींद उसे अपनायेगी?”

~समर~

समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |

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