ओ यादों के पुतले!

ओ यादों के पुतले!
तू क्या क्या न सहता..
बचपन की पगडंडी का,
पक्की काली सड़क होना;
दादी की मिसरी का,
पल भर में कहीं गुम् होना;
दोस्तों भरी शामों का,
ख़ाली तपन दोपहर होना।

ओ ख़ालीपन से भरे हुए!
अब छोड़ इस वजूद का वज़न,
मन हल्का कर।
हर बात नहीं बस में-
ये समझा कर।
छोड़ अब जाने दे तानों को,
कर इनको हवाले हवाओं को,
धार चाकू सी इनकी-
जो मन कटे तो अश्रु रिसे!

ओ अश्रु से रिसे हुए!
रो ज़ार ज़ार कितना कोई रोके,
बहने दे जो बहता जाये,
क्यूँ चुपचाप तू सब सहता जाये?
पर फिर से नज़र उठा,
देख रात हुई एक भले,
हैं कई सवेरे द्वार खड़े;
है ओस घास की,
बिखरी भर उपवन;
है धूप आस की,
लिपटी रंग तन मन;
सब काग़ज़ कोरे कितने,
जा रंग इन्हें, दे ढंग इन्हें!

ओ यादों के पुतले सुन,
अब नई यादें गढ़…

~समर~

समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |

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