पुस्तक लोक की कथा है,
कितनी व्यथा है।
क़िस्से कितने दम तोड़ते
कितनी अधूरी दास्ताँ है ।
मैं विचरता दिख जाता हूँ,
उन संकरी गलियों में
कुछ पन्नो में,
कभी किताबों की दुनिया में ।
कभी अक्षरों के संग करता हूँ कलरव ।
सुनता हूँ प्रीतम गीत ।
कभी किसी तरुण हृदय में रोपा जाता हूँ अणु सा ,
कभी विरहा
कभी कुंठा ।
कभी कभी फसलों में उग आता हूँ घास की तरह…
~अनामिका~
दिन- रात के पूरे पहर से थोड़ा हिस्सा अपने लिए छुपा लेती हूँ | भागदौड़ के बीच, दो पल ठहर जाने को, सांसों को सुन लेने को, आँखों के भीतर की रौशनी में नहा लेने को, मन व्याकुल रहता है |
यूं हीं ठहर कर आसपास की दुनिया पर नजर डालना, महसूस करना और सुन्दर पलों में,
पन्नों पर कहानियाँ बुनना, अच्छा लगता है|
अनजाने शहर और आधुनिकता के घेरो में, अपनी भाषा, ममता और प्रेम का संचय, सादगी के साथ करना पसंद है|
एक अनामिका जैसी इंसान साथ रहती है मेरे अंदर – हमेशा |
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