न घड़ी तेरी न वक़्त मेरा

उफ्फ ये सौदा मुलाकातों का ,
मैं मंज़िल तेरी, तू सफ़र मेरा
न घड़ी तेरी, न वक़्त मेरा।

ओझल रातो से ख्वाब बंजारे,
फिरते रहते बस मारे मारे,
शाम की जुस्तजू करती बयां,
न घड़ी तेरी, न वक्त मेरा।

कतरा कतरा धड़कती आँखें
कश्तियों की तलाश,बरकरार,
निहारते साहिल को थकती आंखें,
न घड़ी तेरी, न वक्त मेरा।

फाड़कर पन्ने हटा दिये हाथों से,
स्याही जुझती रही इन दूरियों से,
भुलाकर भी बेगानेपन का आलम नहीं,
न घड़ी तेरी, न वक्त मेरा।

रुठकर रुक गया इंतजार पुराना,
लफ़्ज़ों को साँझ में पिरोया है,
ग़िला उल़्फत से बांधकर,
लम्हों को चांद में संजोया है,
अंबर भी कर रहा इंतजाम,
ये सिलसिला खुब रंग लायेगा
जब होगी-
हर घड़ी तेरी, हर वक़्त मेरा…

~साक्षी चंदनकर~

साक्षी चंदनकर एम.बी.बी.एस कि पढ़ाई कर रही हैं । लिखने का प्रयास भी बचपन से शुरू किया | अक्सर जो बात कह नहीं पाती उसे शब्दों में पिरोकर लिख देती हैं । हाईस्कूल के दौरान उन्होंने कविताओं से विराम लिया था | फिर एम.बी. बी.एस की शुरुआत में एक शाम अपने जीवन का अनुभव फिर एक पन्ने पर उतार दिया । छुप- छुपकर फिर उन्होंने लिखना शुरु किया | जब उनकी एक कविता की दोस्तों ने प्रशंसा की, उनमें आत्मविश्वास जागृत हुआ| फिर अपने लेखक बनने के ख़्वाब को चुना और अब वे अपने दोनो क़िरदार- लेखक हो या वैद्यकिये पढ़ाई, बहुत ख़ूब निभाती है। एक अनकही बातों का कारवाँ उनके blog- “अबोल “मे शामिल है ।

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