दहलीज़..

मकान बड़े हो या छोटे हो
दहलीज़ तो सबकी ही होती है,
पर जब भी लांघी जाती हैं बग़ावत के लिए,
या तो इतिहास बदल देती हैं,
या कट्टर परंपरा वादी दीवारें
बग़ावत को इतिहास में दफना देती हैं ।

दहलीज़ मैं भी लांघना चाहती थी-
पर हर वक्त लोग क्या कहेंगे ये सोचती थी
समाज ,परिवार और उन चार लोगों बारे में
सोचकर मैंने क्या पाया ?
आज उन्हें कोई फरक नहीं पड़ता की-
उस न लांघी हुई दहलीज से मैंने क्या खोया ?

इतिहास के पन्नों पर शायद मेरी भी कहानी होती
काश की मैंने भी परंपराओं की दहलीज छोड़ी होती..

हां लेकिन मौक़ा मिला है मुझे ,
आज कुछ हिम्मताना करने का !
और कोई दहलीज लांघना चाहता है-
उसे उस पार छोड़ आने का !


~अरुणा जाजू~

अरुणा ने अपने बारे में हमे कुछ यों बताया:

बहती नदी सी थी जिसे बहना अच्छा लगता है,
जो देखे सपना कोई वो भी सच्चा लगता है,
रास्तों के सारे मोड़ जी भर के जीती हूं,
सच का सच ही हमेशा लिखती हूं,
प्रेम लिखा ,उम्मीद लिखी ,लिखा दर्द भी ,
मौसम ज़िंदगी के झेले सारे कभी धूप तो हवा सर्द भी,
कलम की ताकत की जब हुई पहचान,
कलम से ही हो नाम मेरा यही है अरमान…

अगर आप भी लिखना चाहते हैं The GoodWill Blog पर तो हमें ईमेल करें : publish@thegoodwillblog.in / blogthegoodwill@gmail.com

हमसे फेसबुक इन्स्टाग्राम और ट्विटर पर जुडें :

https://www.facebook.com/thegoodwillblog : Facebook
https://www.instagram.com/blogthegoodwill/ : Instagram
https://twitter.com/GoodWillBlog : Twitter

Leave a comment