मैं रोज़ जीवित होता हूँ,
रोज़ मर जाता हूँ,
सुबह खाक़ से उठने की कोशिश करता हूँ,
शाम तक खाक़ में मिल जाता हूँ।
कभी इस छोर, कभी उस छोर,
सुलझाता हूँ जीवन की डोर,
भागम् भागी, आपा धापी,
इधर उधर, नगर नगर,
ताकि रह सकूँ अपनो के संग,
बांट सकूँ खुशियोँ के रंग।
पर तभी कुछ ऐसा होता है,
जो कल तक किसी और संग होता था,
वो हादसा मुझ पर ही बरस जाता है,
जिससे गुज़र किसी और शहर का बच्चा रोता था।
कुछ ही पलों में मेरी नगरी,
लाल लाल हो आती है,
मुझे ले जाएँ शमशान या कब्रिस्तान,
दुनिया यही सोचती रह जाती है।
मगर है कुछ इस सीने में,
जो मरता ही नहीं।
कल ही तो मरा था मैं,
यह डर भी इसे लगता नहीं।
दबाये चिताओं को दिल में अपने,
मैं फिर पहल करता हूँ।
शहर के जज़्बे को बचाये,
बसों, रेलों और रिक्शों में सफ़र करता हूँ।
पर मरुँ सिर्फ एक बार,
ऐसा विधि का विधान कहाँ?
क्षीण कर सकूँ अपने हत्यारों को,
मेरा पराक्रम इतना महान कहाँ?
कुछ ही हफ़्तो में,
कोई कहर फिर बरप जाता है,
मैं बच भी गया अगर,
मेरा कोई अपना बिखर जाता है,
मेरा हर ख़्वाब,
दम तोड़ कर,
बस ख़्वाब ही रह जाता है।
सब कहते हैं-
मैं मामूली सा इंसान हूँ,
पर मैं ख़ुद नहीं जानता,
मैं कौन हूँ?
क्यों मैं रोज़ जीवित होता हूँ?
क्यों रोज़ मर जाता हूँ?
क्यों सुबह ख़ाक से
उठने की कोशिश करता हूँ?
क्यों शाम तक
ख़ाक में मिल जाता हूँ…..
~समर~
समर भीड़ में उलझा हुआ एक चेहरा है |
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