ख़ुद से ख़ुद तक…

जो मिले अब ख़ुद से,
क्या करें चलो पूछे ख़ुद से;
सब सो रहे जगे हैं ख़ुद से,
इत्तिला कुछ हो अब ख़ुद से|

झूमता है जब सोता हूँ,
ख्याल आता है जब जागता हूँ;
करना है कुछ जो नहीं सोचता हूँ,
काबू नहीं है मन अब तो लिखता हूँ|

याद आता है लम्हा जो रह गया,
अधूरा है पर पूरा हो चुका;
समय सीखा देता है ज़िन्दगी,
आसरा देती है बंदगी।

गिला जो था अब रूबरू हुआ,
याद में उसकी मशरुफ हुआ;
मंज़िल अब तो करीब हुई,
लफ्ज़ो में ही सही- तक़रीर तो हुई |

कैद नहीं होता यह आसानी से,
इसी के लिए नशा करता हूँ;
खूब कहा है किसी ने,
वक़्त वही था जो अब दुआ करता हूँ |

कुछ दफ़न है जो उमड़ता है,
कुछ बचपन है जो खेलता है;
कैद हो जाती है समझ,
जब वक़्त उससे जूझता है|

मिला दे आज उस मंज़र से,
जो आँखों से नहीं दिखता;
तेरी नज़र फलक से,
तेरे साथ को कबूल करता|

~विजय छाबड़ा~

विजय एक ख़ुशक़िस्मत इंसान हैं जो महत्वाकांक्षी एवं कार्यरत हैं | महफिल तथा संगीत से अपार प्रेम है और आशावादी दृष्टिकोण से समाज समझते हैं |

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