वक़्त बहती नदी सी,
कहीं भी मुड़ चलती, कभी ना थकती I
वक़्त खुला आसमान भी,
जहां सूरज उगता तो कभी धूप ढलती I
वक़्त पुराना बरगद भी,
हर पत्ता अलग, हर मौसम नया;
कभी पतझड़, कभी गर्मी;
कभी बसंत, कभी बिजलीI
वक़्त को किसी ने ना जाना,
गुज़रता भी है, हर जगह रहता भी है I
सबका वक़्त एक जैसा होता नहीं,
और ना हर वक़्त एक जैसा I
घड़ी वक़्त का एक इशारा, पर वक़्त नहीं;
इस भागते वक़्त से चुनती हूँ कुछ लम्हें,
कुछ सुकून के पल..
कुछ ग़म की घड़ियाँ..
क्या सही? क्या नहीं?
क्या अभी? क्या कभी?
वक़्त सब कुछ है,
और कुछ भी नहीं।।
वक़्त बदलाव है और ठहराव भी I
ये ज़ख्म है और ज़ख्म का इलाज भी,
क्यों वक़्त सताता है, बेवक़्त रुलाता है,
क्यों ये एक सवाल है? ये क्या मायाजाल है ?
वक़्त अनकही है, अनछुई है;
वक़्त चुप है, बेज़ुबान नहीं;
वक़्त एक अचूक तलवार है,
वक़्त अजेय है, अनंत हैं,
वक़्त एक खेल है,
जिसे खेलते सभी खिलाडी,
मौत भी, ज़िन्दगी भी, तुम भी, मैं भी,
पर जीतता बस वक़्त ही,
पहले भी और आगे भी…
~श्रुति रामकृष्णन~
श्रुति को लेखन की प्रेरणा रोज़मर्रा के जीवन में प्राप्त होती है। उनका विश्वास है कि अपने और लोगों के गहन अनुभवों के समाहित होने से ही शब्द जादू बिखेरने में सक्षम हो पाते हैं।
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