तू मुझे पीती है या मैं तुझे,
अनजान रहता काफिर यह सफर;
मिलाती मुझसे तू या मैं तुझे,
बहता नीर है हमसफ़र…
हौंसला ज़ुबान तक कायम,
महफ़िल-ए-आम में इर्शाद;
तहज़ीब-ए-अदा लफ्ज़ में,
पाए सदा बेशक तस्लीम..
हाल ए दिल से मुस्कराहट,
मुकम्मल दरम्यान मुहब्बत के;
पेश है खिदमत में दर्द,
मज़हब इश्क़ का हर दम से…
हर लम्हा लगे बेशुमार,
रुतबा उस खुमार का;
जहाँ भूल, क़ुबूल उसकी सजा,
जहाँ जूनून, मुनासिब वो उर्दू..
मुख़्तसर गुलिस्तां यह ज़िन्दगी,
खुदा की रहमत पे कायल;
खुदी से मिलादे गर महफ़िल,
शौक़ गुनहगारों का भी है वाजिब..
जरेह गर यह गैरों के लिए,
रहने दो काफिर सुकून-ए-ख़ालिस से;
हसीं गुलशन के मदाहों से,
अक्क्लियों का फरमान समझ लो…
~विजय छाबड़ा~
विजय एक ख़ुशक़िस्मत इंसान हैं जो महत्वाकांक्षी एवं कार्यरत हैं | महफिल तथा संगीत से अपार प्रेम है और आशावादी दृष्टिकोण से समाज समझते हैं |
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