मैं शिखर पर था,
मेरा अहम चरम पर।
सत्य रंजित था शंकाओं से-
और काले घने शोक के बादल,
मुझे घूर रहे थे।
मैं चीख़ पड़ा-
“ओ मेरे महान सपनों!!
आओ मेरा वरण करो।
मुझे थामों – मैं बेचैन हूं।
मैंने देखा है खुद को तुममें,
एक वीर विजयी योद्धा सा,
जिसका कोई वार बेमानी नहीं गया,
जो हार हार हाथ खाली नहीं गया,
जिसके रुख़ से धुरी पलटी,
नियम बदले , माज़ी सहमी।
पी लिए ज़हर के प्याले-
सत्य की खातिर,
समझाया धरती काटती है चक्कर-
सूरज के जानिब।
फिडीपीडीस बन हांफा,
पिरामिडों की नींव में रिसा ,
गुंबदों में गूंजा ,
मीनारों संग झूमा ।
पर अब?
एक नए शून्य पे दीन हूं।
ये शून्य घोट देगा दम मेरा,
फेंक देगा दरिया में धड़ मेरा,
राख़ कर देगा मेरी हर उम्मीद को…..”
.
तभी मैं चौंक गया प्रतिध्वनि सुन-
सपने गूंज उठे थे।
“नक्कारे , मक्कार!
धूर्त , कपटी, चाटुकार!”
तू यहां भी अर्ज़ी देगा?
खुशामद करेगा?
खोखली रीढ़!!
जो है दमखम तो
लगा छलांग।
बादलों को चीर,
हवाओं को काट,
भूल जा मौत के मायने
तू ज़िंदा था कब?
आ छीन हमें।
हड्डप ले।
हम फरयाद नहीं-
जुर्रतों की जागीर हैं।
हवस है तो हिम्मत ढूंढ़,
समझ है तो ज़िल्लत भूल ।
न कभी पहाड़ हटे हैं,
न कभी सागर घटा है,
बस साहस बढ़ा है।
जुनून सिर चढ़ा है।
फितूर मन जगा है।
कि नहीं है चट्टान कोई-
जो आये आड़े सैलाब के
गर पानी ठान ले-
उसे करना क्या है।
तू तोड़ मन की ज़ंजीरों को,
खोज अपने जज़ीरों को…
तुझे रोकता कौन है?
टोकता कौन है….??
और मैं कूद पड़ा
पल भर की ख़ामोशी के बाद
हवा की गोद में
बादलों को भेद।
फ़लक और ज़मीन के बीच,
एक निश्छल शांति ने
मुझे मुझसे मुक्त किया।
सपनों से सीखा मैंने-
अंतर है स्वतंत्र होने में
और मुक्त होने में।
स्वतंत्र में-
“स्व” है, “स्व” का “तंत्र” है।
किन्तु मुक्ति मुक्त है-
“स्व” से,
“तंत्र” से,
सब से …..
~समर~
समर भीड़ में उलझा एक चेहरा है |
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